आज का रोचक एवं महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान में आन्ध्र-सातवाहन वंश के बारे में पढ़े -Read about the Andhra-Satavahana dynasty in today’s interesting and important general knowledge.

आज का रोचक एवं महत्वपूर्ण  सामान्य ज्ञान में  आन्ध्र-सातवाहन वंश के बारे में पढ़े -Read about the Andhra-Satavahana dynasty in today’s interesting and important general knowledge.

आन्ध्र-सातवाहन वश(30 ई०पू० – 250 ई.)

सातवाहन वंश की स्थापना सिमुक ने 30 ई.पू. में की थी। इतिहास में सिमुक को – ‘सिष्टक’ या ‘सिन्धुक’ के नाम से भी जाना जाता है।

सिमुक ने अपनी राजधानी गोदावरी नदी के तट पर स्थित प्रतिष्ठान/ पैठन (वर्तमान में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित) नामक स्थान में बनाई थी।

सातवाहन वंश का कार्यकाल प्राचीन भारत में किसी एक वंश का सबसे लम्बा कार्यकाल माना जाता है। इस वंश ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 400 वर्षों तक शासन किया।

फुराणों में सातवाहनों को आन्ध्र-भृत्य था आन्ध्र-जातीय कहा गया है, परन्तु अभिलेखों में इन्हें सातवाहन कहा गया है। इसी कारण से इस वंश को आन्ध्र-सातवाहन वंश भी कहा जाता है।

सातवाहनों का शासन क्षेत्र आन्ध्र प्रदेश एवं उत्तरी महाराष्ट्र के क्षेत्रों तक फैला हुआ था। यहाँ से उनके प्राचीन अभिलेख तथा अधिकांशआरम्भिक अभिलेख मिले है।

नासिक अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि सातवाहन वंश के लोग ब्राह्मण जाति के थे। सातवाहन वंश में कुल 27 राजा हुए तथा इसके प्रमुख शासकों में – सिमुक, शातकर्णी-1, हाल, गौतमीपुत्र शातकर्णी, बशिष्तीपुत्र पुलुमावी, यज्ञश्री शातकर्णी आदि थे।

सिमुक (30 ई.पू.-27 ई.पू.)

पुराणों के प्रमाण के अनुसार सिमुक (या सिन्धुक) नामक आन्ध्र ने (जो सम्भवतः कण्व शक्ति का नायक या सेनापति था) ने कण्व वंश के अन्तिम राजा सुशर्मन की हत्या करके सत्ता हथिया ली।

पुराणों के अनुसार सिमुक ने कुल 23 वर्षों तक शासन किया। सिमुक के नाम का उल्लेख नानाघाट चित्र-फलक-अभिलेख में मिलता है।

पुराणों के अनुसार सिमुक का उत्तराधिकारी उसका भाई कृष्ण (कन्ह) था, जिसने सिमुक के बाद 18 वर्षों तक शासन किया।

कृष्ण ने अपना साम्राज्य नासिक तक बढ़ाया। उसके श्रमण नामक एक महामात्र ने नासिक में एक गुहा का भी निर्माण करवाया था।

नासिक में मिले एक शिलालेख में उसका नाम मिलता है। इसी आधार पर विद्वानों की राय है कि कृष्ण के काल में सातवाहन राज्य पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच फैला हुआ था तथा महाराष्ट्र निश्चित रूप से सातवाहन वंश के राजाओं के अधिकार में था।

शातकर्णी प्रधम (27 ई.पू.-17 ई.पू.)

कृष्ण के आद सिमुक का पुत्र शातकर्णी प्रथम सिंहासन पर बैठा। वह एक महान बिजेता और अपने वंश का प्रतापी एवं प्रथम महवपूर्ण शासक था। बुद्धचरित नाम के बोद्ध ग्रन्थ में उसका वर्णन प्रतिष्ठान के शासक के रूप में किया गया है। यह कलिंग राजा खारवेल का समकालीन था।

पुराणों में शातकी प्रथम को ‘कृष्ण का पुत्र बताया गया है, परन्तु वह सिमुक का पुत्र एवं कृष्ण का भतीजा था। इसने अपने चाँदी के सिक्कों पर अश्व (घोड़ा) की आकृति अंकित करवाई थी।

उसने महाराष्ट्र के महारथी त्रणकयिरों की कन्या नागनिका से विवाह कर अपना प्रभाव बढ़ाया। शातकर्णी प्रथम ने दक्षिणपथ के अनेक प्रदेशों को सातवाहन वंश के अधीन किया तथा -‘दक्षिणाधिपति’ तथा ‘अप्रतिहत्तचक्र’ की उपाधि धारण की।

• नागनिका नागरिका नाम की कुमारी महाराष्ट्र के एक बड़े महारथी सरदार की दुहता थी। इस विवाह के कारण शातकर्णी प्रथम की शक्ति के बहुत बढ़ गई, क्योंकि एक शक्तिशाली महारथी सरदार की सहायता से प्राप्त हो गई।

•  शातकर्णी प्रथम के सिक्कों पर उसके श्वसुर अंगीवकुलीन महारथी त्रणकषिों का नाम भी अंकित है।

शातकर्णी प्रथम ने दो बार अश्वमेध यज्ञ तथा एक बार राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान भी करवाया था।

रानी नागनिका

शातकर्णी प्रथम की मृत्यु के समय उसके दो पुत्र – वेदन्थी’ और ‘शक्तिश्री’ नाबालिग थे, इसलिए उनकी माँ नागनिका ने उनकी संरक्षिका बनकर राज्यकार्य का संचालन किया।

सातवाहन वंश का इसके आगे का इतिहास अन्धकारमय है। यद्यपि इस 100 वर्ष के शासकों के नामों में हकुश्री, सातिश्री, स्कंध स्तम्भि, शातकर्णी द्वितीय, अपीलक, हाल आदि के नाम प्राप्त होते हैं।

इसी काल में में लगभग 78 ई० में शकों का कूलरा आक्रमण भारत पर हुआ और शकों ने महाराष्ट्र पर अधिकार कर लिया।

• महाराष्ट्र में शकों का जो राजवंश स्थापित हुआ था उसका नाम -‘लहरात’ था।

• शक क्षत्रप नहपान के जो सिक्के एवं अभिलेख नासिक प्रदेश के आस-पास से प्राप्त हुए हैं, वे भी इस बात के प्रमाण हैं कि प्रथम शताब्दी के अन्त अथवा दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में इस क्षेत्र पर शक अधिकार कर चुके थे।

शतकर्णी प्रथम की पत्नी रानी नागनिका के नानाघाट अभिलेख में इसकी उपलब्धियों का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है। इसी अभिलेख में वह वर्णन मिलता है कि शातकर्णी प्रथम ने पहली शताब्दी ई.पू. में ब्राह्मणों एवं बौद्धों को भूमि वा जागीरं प्रदान की थी।

• नानाघाट अभिलेख को भूमिदान का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्यमाना जाता है।

हाल (20 ई.-24 ई.)

हाल सातवाहन वंश का 17वां शासक था।

हाल एक विद्वान शासक था। यह साहित्यिक अभिरूचि भी रखता था तथा एक कवि सम्राट के रूप में प्रख्यात हुआ। उसके नाम का पुराण ,लीलावती, सप्तशती, अभिधान चिन्तामणि आदि ग्रन्थों में हुआ है।

इसने प्राकृत भाषा में -‘गाथासप्तशदी’ या गावासत्तसई’ नामक पुस्तक की रचना की थी।

गाथासप्तशदी नामक इस ग्रन्थ में 700 श्लोक हैं, जिसमें राजा हाल के प्रेमगाथाओं का सुन्दर वर्णन किया गया है।
० समशती अथवा सतसा = सात सौ श्लोकों से पूर्ण

हाल के दरबार में ‘वृहत्कथा कोश’ के लेखक -‘गुणाय’ एवं ‘कातन्त्र’ के लेखक -‘सर्ववर्मन्’ निवास करते थे।

• बृहत्कथा कोश – गुणात्य द्वारा लिखित यह ग्रन्थ मूलत पैशाची प्राकृत भाषा में लिया गया है। इसमें प्रारम्भ में लगभग 1 लाख पद्यों का संग्रह था, पन्तुर्भाग्यवश यह अन्न आर अपने भूत रूप में उपलब्ध नहीं है।

० कालान्तर में बुद्धबाभी की चूतक्यालोक-संगह, क्षेमेन्द्र की मूलकथा-मंजरी तथा सोमदेव की कथामारित सागर नामक तीन अन्यों की उत्पत्ति गुणात्य की प्रवकया जोश से ही हुई।

• कातन्त्र – सर्ववर्मन् की यह रचना संस्कृत व्याकरण पर आधारित है। कहा जाता है कि हाल की एक रानी -‘मलवबती ने हाल को संस्कृत सीखने के लिए प्रेरित किया था जिसके फलस्वरूप कातन्त्र की रचना हुई।

ऐसा माना जाता है कि यदि आरम्भिक सातवाहन शासकों में शातकर्णी प्रथम योद्धा के रूप में सबसे महान था तो राजा हाल शांतिपूर के रूप में अग्रणी था।

हाल के एक सेनापति – विजयानन्द’ ने श्रीलंका को जीता था।

महेन्द्र शातकर्णी

राजा हाल के बाद क्रमशः पत्तलक, पुरिक्सेन, स्वाति और स्कन्दस्याति सातवाहन साम्राज्य के राजा हुए इन चारों का शासन काल कुल 51 वर्ष का था राजा हाल ने 20 ई. से शुरू कर 24 ई. तक पांच साल राज्य का सामन सम्भाता था स्कन्दस्याति के शासन का अन्त 72ई. में हुआ तथा इनके समय में सातवाहन साम्राज्य अक्षुणण रूप में बना रहा।

स्कन्दस्याति के बाद महेन्द्र शातकर्णी राजा बना। ‘परिप्लस ऑफ एरिथियन सी’ के ग्रीक लेखक ने भी इसी महेन्द्र को ‘मंबर ‘ के नाम से सूचित किया है। प्राचीन पश्चचत्य संसार के इस भौगोलिक यात्रा-ग्रंथ में भस्कच्छ के बन्दगाह से एक करके ‘मंबर ‘ द्वारा शासित ‘आर्यदेश’ का उल्लेख मिलता है।

गौतमीपुत्र शातकर्णी (1061-197)

सातवाहन वंश का महानतम एवं शक्तिशाली शासकगीतमीपुत्र शातकर्णी था। इसके समय में सातवाहन वा की शक्ति का पुनरुद्धार हुआ।

पुराणों के अनुसार वह सातवाहन वंश का 23वां राजा था। उसने सन् 106 ई. से 130 ई0 तक शासन किया तथा स्वयं को ब्राह्मण बताया , गौतमीपुत्र शातकणों ने पश्चिम भारत में प्रभावशाली शकों के क्षहरात वंश का नाश किया तथा इसके शासक – ‘नहपान को पराजित करके मार डाला।

• नाहपान की हत्या के बाद गौतमीपुर शातकर्णी ने-‘शकनिशुदन की उपाधि धारण की थी।
• गौतमीपुत्र शातकर्णी -‘पक्षिम का स्वामी के नाम से भी प्रसिद्ध था

इसने शकों से उत्तरी महाराष्ट्र, कोकग, विदर्भ, सौराष्ट्र, मालवा एवं कठिवावाड़ का प्रदेश छीन लिया तथा अनी एक अन्य राजधानी – ‘बनवासी’ को बनाया

• इस प्रकार से लगभग 100 वर्षो के पराभय काल के व्यतीत हो जाने बाद गौतमीपुत्र शातकर्णी नामक सातवाहन वंश के राजा ने अपने वंश की खोयी हुई प्रतिष्ठा एवं स्वयं को पुनः प्राप्त कर लिया। उसने शकों के अलावे यवनों, पार्विचनों, आदि का भी नाश किया।

इसकी माता -‘गोतमी बलश्री के ‘नासिक अभिलेख’ से इसके सेना उपलब्धियों एवं अन्य कार्यों की जानकारी प्राप्त होती है।

• नासिक अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी को एकमात्र ब्राह्मण एवं अद्वितीय ब्राह्मण कहा गया है।

• इसने -‘ख़तियद -पमान-मदनस’ की उपाधि धारण की थी। राजमाता गौतमी बलश्री के लेखों के अनुसार आके घोड़ों ने तीन समुद्रों का पानी पीया था। वे समुद्र थे – अरब सागर, हिन्द महासागर एवं बंगाल की खाड़ी

• नासिक के पास – ‘जोगलथम्बी ‘ नामक स्थान से चाँदी के 8000 सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिनमें एक तरफ शक क्षत्रप नहपान ओए की तरफ गौतमीपुत्र शातकर्ण कानाम अंकित मिलता है।

० इससे यह पता चलता है कि शकों को उखाड़ फेंकने के बाद बड़ी संख्या में उसके चांदी के सिक्के पुनराकित करवाए थे।

गौतमीपुत्र शातकर्ण ने नासिक जिले में-वेणाकटक’ नामक नगर का निर्माण करवाया था। इसने राजाराम, बेन्कस्वामी विन्ध्यनरेश की उपाधियाँ थी ग्रहण की थी।

• इसने बौद्ध संप को -‘अजकालिकय’ तथा कार्ले के भिक्षु संघ को – करजक’ नामक गाँव दानस्वरूप प्रदान किया था। अभिलेखों में यह पता चलता है कि शातकर्णी ने अपने शासनकाल में 18वें वर्ष में बौद्ध भिक्षुओं को एक गुफा समर्पित की तथा 24वें वर्ष में कुछ भूमि तपस्वी सन्यासियों को दान में दी थी।

• गौतमीपुत्र शातकर्ता पहला ऐसा राजा था जिसने अपने नाम के आगे मातृनाम (अपनी माता का नाम) जोड़ा था। उसकी मृत्यु के बाद उसके सभी उत्तराधिकारियों ने भी अपना नाम रखने की यही पद्धति अपनाई।

शून्यवाद के प्रवर्तक -‘नागार्जुन’ गोतमीपुत्र शातकर्णी के समकालीन थे।

• इतिहाकार गौतमी पुत्र शातकर्णी को इस बात का श्रेय देते है कि उसने विदेशियों को अपने राज्य से भगा दिया तथा मातवाहन वंश के शासन को दक्षिण में सुदृढ़ किया। वस्तुतः वह अपने वंश का सबसे प्रतापी शासक था उसने सम्पूर्ण दक्षिण भारत तथा मध्य भारत को अपने अधीन किया।

• गौतमीपुत्र शातकर्ण वीर होने के साथ-साथ एक सफल शासक भी था वह अपनी प्रजा के गुप के लिए मात्र चिन्ता किया करता था। इसने अपनी प्रजा पर अधिक कर नहीं लगाये तथा वैदिक धर्म के प्रसार में योगदान दिया।

वाशिष्ठीपुर जी पुलमाची (1301–1546.)

• गौतमीपुत्र शातस्गों के बाद उसका पुत्र व उत्तराधिकारी वाशिष्ठी पुत्र पुलुभावी अगला राजा बना। इसने औरंगाबाद को अपनी राजधानी बनाई तथा सातवाहन साम्राज्य विस्तार किया।

• शक थप रुद्रयामल के साथ इसका दो बार संघर्ष हुआ तथा दोनों बार उसे पराजित किया परन्तु बाद में सन्धि के द्वारा रुद्रदामन ने इसे छोड़ दिया था, क्योंकि पुलुभावी के भाई शिवश्री शातकर्णी का विवाह रुद्रदामन की पुत्री के साथ हुआ था

• संभवतः शकों के घातक आक्रमण से अपने साम्राज्य को बचाने के लिए ही सातवाहनों ने शकों के साथ बेवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए थे, परन्तु इस शक राजा ने बाद के सातवाहन राजा को पाराजित किया और उनसे -‘अपरांत’ (कोकण) एवं ‘अनूप (नर्मदा पाटी) के क्षेत्र और लिए

पुलुभावी के सिक्के और अभिलेख आध-प्रदेश से भी मिले हैं, जिनसे प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि ईस्वी सन दूसरी शताब्दी तक उसके शासनकाल में आना प्रदेश सातवाहन राज्य के अधीन आ गया था।

उसने पूर्व तथा दक्षिण में चोल शासकों को पराजित किया। उसके सिक्के सुदूर दक्षिण में भी अनेक बार स्थानों पर उपलब्ध हुए है। उसके सिक्कों से दो जानकारियां मिलती है
• प्रथम, उसका साम्राज्य मुख दक्षिण तक फैला हुआ था।
• दूसरा, सिक्कों पर बने मजबूत मस्तूत वाले जहाजों से हमें पता चलता है कि उनकी समुद्री शक्ति अत्यधिक बड़ी हुई थी.

सम्भवत: इसके काल में भारत के लोग समुद्र को पार करके अपने उपनिवेश बसाने के लिए विदेशों में गये थे। पुलुभावी ने पूर्वी एशिया में भी अपने कई उपनिवेश बसाये।।

पुलुभावी को – दक्षिणापथेश्वर ‘ भी कहा गया है। इतिहासकार टात्मी ने अपने विवरण में इसे – सिरोपोलिमेओस कहा है।

शिवश्री शातकर्णी(1541.-1656.)

• वह पुत्तुमाथी का सहोदर छोटा भाई राया शकापातामन का दामाद था।

यज्ञश्री शातकर्णी (1656–194 ई.)

सातवाहन वंश का अन्तिम महान, शक्तिशाली तथा उल्लेखनीय शासक यात्री शातकणी (165-194) था.

इसके समय के सिक्कों पर मछली, नाव, शंख एवं जहाज के चित्र अंक्ति मिलते है।

• यज्ञश्री शातकर्णी के मिले शकों सिक्कों में दो मस्तूल वाले जहाज का चित्र अंकित है।
• उसके प्राप्त सिक्कों पर जहाज के चित्र इस बात की पुष्टि करते है कि वह नौ-परिवहन का बहुत प्रेमी था।
• इसके अलावे यह भी अनुमान लगाया जाता है कि यज्ञश्री शातकर्ण का समुद्री यात्रा, सामुद्रिक व्यापार आदि में भी विशेष रुचि थी.

यज्ञश्री शातकर्णी ने शकों को पुनः पराजित किया तथा उसने उत्तर कोंकण और मालवा शक राजाओं से वापस प्राप्त किये जिसे शकों ने उसके पूर्वजों से जीत लिया था।

• यज्ञश्री शातकर्णी के-‘त्रिसमुद्रधिपति कि उपाधि धारण कि थी।

• यज्ञश्री शातकर्णी के शासनकाल के 27वें वर्ष का एक लेख आन्ध्र प्रदेश के गुन्टूर जिले से मिला है, जिससे यह पता चलता है कि उसने पूर्वी एवं पश्चिमी दमन पर भी शासन किया था.

• यज्ञश्री शातकर्णी के अभिलेख नासिक एवं कन्हेरी से भी मिले हैं।

सम्भवतः इसी के काल में सातवाहनों ने करीस नगर तथा वारंगल के लौह अयस्कों का प्रयोग किया था। इन दोनों जिलों में लोहे की खदानों के महापाषाण काल में होने के संकेत प्राप्त हुए हैं.

यज्ञश्री शातकर्णी के उत्तराधिकारी निकम्मे थे। इसके बाद धीरे-धीरे सातवाहन वंश कमजोर होता चला गया सातवाहनों के स्थान पर कई सामन्त मुखियों ने स्वतन्त्र रूप से अपने-अपने वंशों को राजवंशो के रूप में शुरू किया।

सातवाहन वंश का सबसे अन्तिम शासक -‘पुलुमावी चतुर्थ पुलोमा’ था करीब 225 ई. तक इस वंश का शासन पूरी तरह समाप्त हो गया।

सातवाहन वंश के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी : –

• सातवाहनों की राजकीय भाषा- ‘प्राकृत’ एवं इनकी लिपि -‘ब्राम्ही ‘ थी।

इसी वंश के काल में हिप्यालम ने मॉनसून की खोज की थी।

सातवाहन वंश के काल में पूर्वी तट से प्रमुख बंदरगाह -” ताम्रलिपि तथा अरिकक्मेडू” एवं पश्चिमी तट के प्रमुख बन्दरगाह – भड़ौच (वर्तमान भरूच), सोपारा (सुप्पारा) एवं कलिएन (कल्यान) थे।

सातवाहन शासकों ने सर्वप्रथम सीसा एवं पोटीन के सिक्के जारी किए थे जिन्हें – “रूपम’ कहा जाता था।

सातवाहन लोग अपने सिक्कों को जिस सीसे से ढलवाते थे उसे रोम से मंगवाया जाता था।

हालाँकि इस काल में चांदी, तांबे और कासे के सिक्कों का भी प्रचलन प्रचुर माश में था ब्राह्मणों को भूमि या जागीर देने की परम्परा की शुरुआत सर्वप्रथम सातवाहन शासकों ने ही की थी। प्राथमिक अनुदान सामान्य तौर पर ब्राह्मणों या धार्मिक संस्थाओं को दिए गए थे।

अजंता की गुफाओं में विश्कारी की शुरुआत सातवाहन काल में ही हुई मानी जाती है।
..”[ऐलोरा – राष्ट्रकूट वंश के काल में]

पूना के पास भोरघाट में -‘कार्ले का चैत्य’ का निर्माण सातवाहन शासकों के समय में हुआ था। अमरावती एवं नागार्जुनीकोण्डा के स्तूपों का निर्माण भी इसी काल में हुआ था।

सातवाहन समाज में मातसत्ता सर्वोपरि थी परन्तु राज्य का अगला राजा उस कुत्ल का कोई पुरुष ही बनता था। राजाओं के नाम अपनी माँ के नाम से जुड़े होते थे।

सातवाहन काल में महिलाओं का सामाजिक स्तर बहुत ऊँचा था। इनके समाज में महिलाएं शिक्षित थी, पर्दा-प्रथा नहीं था, स्त्रियाँ भी पैतृक सम्पति में भागीदार होती थी। इस काल में कुल मिलाकर महिलाओं की स्थिति काफी अच्छी थी तथा इनके यहाँ अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे।

सातवाहन साम्राज्य को प्रशासन की दृष्टि से -‘जनपद, अहार तथा गाँव में विभाजित किया गया था।

• आहार के प्रमुख को -‘अमाच’ (गवर्नर) मना जाता था।

. सातवाहन शासकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासन का कार्य -‘गौल्मिक’ नामक अधिकारी को सौंपा था।

• गौल्मिक एक सैन्य टुकड़ी का प्रधान होता था जिसमें – नौरथ, नौ हाथी, पच्चीस घोड़े तथा पैंतालीस पैदल सैनिक होते थे।

सातवाहन वंश के शासकों को दक्षिणाधिपति तथा इनके द्वारा शासित प्रदेश को दक्षिणापथ बहा जाता है। इन्होंने दक्षिण भारत और उत्तर भारत के बीच सेतू (पल) का काम किया।

सातवाहन संस्कृति के प्रमुख केन्द्र प्रतिष्ठान (पैठन), गोवर्धन (आधुनिक नासिक) तथा वैज्यन्ती/ बनवासी (उत्तरी कनारा क्षेत्र) थे। परन्तु सर्वमान्य रूप से सातवाहनों का मूल स्थान महाराष्ट्र में प्रतिष्ठान को ही माना जाता है।

तीसरी शताब्दी तक धीरे-धीरे सातवाहनों के साम्राज्य का अन्त हो गया जिसके बाद उतरी महाराष्ट्र क्षेत्र (विदर्भ) में -‘वाकाटक वंश, आंध्र प्रदेश में -‘इश्वाकु वंश तथा दक्षिणी-पूर्वी क्षेत्रों में -‘पल्लव वंश’ ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।

इन सबों के अलावे ‘आभीरों ने सातवाहनों से महाराष्ट्र क्षेत्र को छीन लिया, उत्तरी कनारा दिला और मैसूर के भाग में ‘कुन्तल प्रदेश’ और ‘चुनटु वंश तथा उसके बाद ‘कदम्ब राजशं शक्तिशाली हो गए।

सातवाहन वंश के बारे में स्मरणीय तथ्य : –

कण्व वंश के अन्तिम शासक सुशर्मा की हत्या करके सिमुक ने सातवाहन वंश की स्थापना 30 ई० में की थी।

सिमुक को सिन्धुक, शिशुक, शिप्रक, तथा वृपल भी कहा जाता है.

सिमुक के बाद उसका छोटा भाई कृष्ण राजगद्दी पर बैठा था।

सातवाहन वंश के प्रमुख शासक सिमुक, शातकर्णी, गोतमी पुर शातकर्णी , वाशिष्ठी न पुलुमावी तथा यज्ञ श्री शातकर्णी आदि थे।

शातकर्णी प्रथम ने शातकर्णी सम्राट, दकिखनाथपति तथा अप्रतिहतचक्र की उपाधिया धारण की थी ।

सातवाहन वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी था।

वेणकटक नामक नगर की स्थापना गौतमीपुत्र शातकर्णी ने की थी।

सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत एवं इनकी लिपि ब्राह्मी थी।

सातवाहनवंशी राजकुमारों को कुमार कहा जाता था।

सातवाहनों ने ब्राह्मणों को सर्वप्रथम भूमिदान एवं जागीर देने की प्रथा का आरम्भ किया था।

सातवाहन काल में सरकारी आय के महत्वपूर्ण साधन भूमिकर, नमक कर तथा न्याय शुल्क कर था।

सातवाहन काल में तीन प्रकार के सामन्त – महारथी, महाभोज तथा महासेनापति थे।

इस काल में तांबे तथा कॉसे के अलावा सीसे के सिक्के काफी प्रचलित हुऐ।

सातवाहन काल में मुख्य रूप से दो धार्मिक भवनों का निर्माण काफी संख्या में हुआ – चैत्य अर्थात् बौद्ध मन्दिर और बौद्ध भिक्षुओं का निवास स्थान।

सातवाहन काल में व्यापारी को नैगम कहा जाता था तथा व्यापारियों के काफिले के प्रमुख को सार्थवाह कहा जाता था।