आज के रोचक महत्वपूर्ण सामान्य ज्ञान में वाकाटक एवं इक्ष्वाकुवश के बारे में पढ़े – Read about Vakataka and Ikshvakuvash in today’s interesting important general knowledge
वाकाटक वंश (255 ई० – 480 ई०)
- मौर्योत्तर काल में उत्तरी क्षेत्र महाराष्ट्र और विदर्भ/ बरार में सातवाहनों के स्थान पर एक स्थानीय शक्ति के रूप में वाकाटकों का प्रभुत्व कायम हुआ, जिन्होंने लगभग 200 वर्षों तक अपना शासन बनाए रखा।
- वाकाटक वंश की स्थापना -‘विन्ध्यशक्ति’ (255 ई०-275 ई.) ने की थी। इसका मूल स्थान बरार (विदर्भ) था तथा शासक बनने से पहले वह बरार का सामन्त था।
- विन्ध्यशक्ति – विष्णुवर्द्धन गोत्र’ का ब्राह्मण था। इसने बिना किसी उपाधि अपना शासन किया.
- वाकाटक वंश की राजधानी -‘नन्दिवर्द्धन’ (नागपुर) में थी।
- विध्यशक्ति का उत्तराधिकारी -‘हरितिपुत्र प्रवरसेन प्रथम’ (275 ई०-335 ई.) था।
- प्रवरसेन प्रथम ने -‘सम्राट’ एवं ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी।
- प्रवरसेन प्रथम को वाकाटक वंश का वास्तविक संस्थापकमाना जाता है।
- इसने चार अश्वमेघ यज्ञ तथा एक वाजपेव यज्ञ किया था।
- प्रवरसेन का उत्तराधिकारी रुद्रासेन प्रथम (335 ई.-360 ई.) था। इसके बाद पृथ्वीसेन प्रथम (360 ई०-385 ई.) वाकाटक वंश का आला राजा बना।
- पृथ्वीसेन प्रथम को प्रयाग-प्रशस्ति में -‘कुन्तरलेन्द्र’ कहा गया है।
- यह अपनी सत्यवादिता के लिए प्रसिद्ध था। इसकी तुलना महाभारत के युधिष्ठिर से की जाती है।
- आगे चलकर वाकाटक वंश का विभाजन दो भागों में हो गया-“बरार शाखा” और “नागपुर शाखा”।
- पृथ्वीसेन प्रथम के पुत्र एवं उत्तराधिकारी रुद्रासेन द्वितीय (385 ई.-390 ई.) था। यह वाकाटकों की नागपुर शाखा से सम्बन्धित था। इसने पहले शैव धर्म को स्वीकार किया था, परन्तु बाद में वह वैष्णव धर्म का उपासक बन गया।
- गुप्त वंश के शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री -‘प्रभावती गुप्त’ का विवाह इसी रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया था।
- रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी प्रभावती गुप्त अपने अवयस्क पुत्रों की संरक्षिका के तौर पर 410 ई. (390 ई.-410 ई.) तक शासन किया।
- प्रवरसेन द्वितीय (410 ई.-440 ई.) इस वंश का अगला शासक बना।
- प्रवरसेन द्वितीय ने महाराष्ट्रीय प्राकृत भाषा में -‘सेतुबन्ध नामक काव्य पुस्तक की रचना की थी। इस पुस्तक में भगवान श्रीराम के श्रीलंका विजय का वर्णन है।
- प्रवरसेन द्वितीय ने कदम्ब शासकों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किए थे।
- प्रवरसेन द्वितीय के बाद उसका राज्य बरार शाखा के -‘हरिषेण के हाथों में चला गया, जिसका वर्णन अजन्ता की गुफा संख्या-16 में मिलता है।
- हरिषेण के बाद वाकाटक साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया जिसके बाद दक्षिण में चालुक्यों का। कर्नाटक में कदम्बों का तथा महाराष्ट्र में कलचूरी वंश आदि लोगों का शासन हो गया।
- वाकाटकों के नागपुर शाखा में प्रवरसेन द्वितीय के बाद अगला शासक क्रमशः नरेन्द्र देव (440 ई.-460 ई.) तथा पृथ्वीसेन द्वितीय (460 ई.-480 ई.) हुआ
- वाकाटक वंश का अन्तिम शासक-‘पृथ्वीसेन द्वितीय’ था।
- अजन्ता की गुफा संख्या – 9 एवं 10 वाकाटक काल से ही सम्बन्धित है।
इक्ष्वाकु वंश
- इक्ष्वाकु वंश का संस्थापक -‘श्री शान्तमूल था। इसने भी अश्वमेघ यज्ञ किया था।
- इस वंश के लोग पहले सातवाहनों सामन्त थे तथा ये कृष्णा-गुन्टूर क्षेत्र में सातवाहनों के अधीन शासन करते थे। पुराणों में इन्हें ‘श्री पर्वतीय’ तथा ‘आन्ध्र-भृत्य’ भी कहा गया है।
- श्री शान्तमूल का उत्तराधिकारी वीरपुरुषदत्त हुआ। नागार्जुनीकोण्डा के प्रसिद्ध स्तूप का निर्माण वीरपुरुषदत्त ने करवाया था।
- अमरावती और नागार्जुनीकोण्डा से मिले इसके लेख में बौद्ध संस्थाओं को दिये जाने वाले उसके दान का विवरण मिलता है, जिससे यह पता चलता है कि – इक्ष्वाकु वंश के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी तथा बौद्ध मत के पोषक थे।
- वीरपुरुषदत्त के बाद शान्तमूल द्वितीय इस वंश का अगला शासक बना।
- इक्ष्वाकु वंश के राजाओं ने तीसरी शाताब्दी के अन्त तक अपना शासन किया। इसके बाद उनका साम्राज्य कांची के पल्लवों के अधिकार में चला गया।